कुंडलिया छंद - मोहन कुमार निषाद जिनगी के आशा आसा जादा झन करव , जिनगी के दिन चार । भाग दउड़ जी हे लगे , थकना हे बेकार । थकना हे बेकार , रोज आघू हे बढ़ना । नइ होवन कमजोर , नवा रद्दा हे गढ़ना । मनले झन जी हार , जान ले हे परिभासा । रही बने खुशहाल , इही जिनगी के आसा ।। मानव झन हार होवय झन अब हार जी , करत रहव परयास । मिलबे करही जीत हर , राख अटल विश्वास । राख अटल विश्वास , धीर जी मनमा धरले । होबे झन कमजोर , परन जी अइसन करले । बैरी तोला देख , रोज जी दुख मा रोवय । मान कभू झन हार , नाम जी जग मा होवय ।। सेवा जिनगी सार करले सेवा जी बने , जिनगी अपन सँवार । बात कहत हँव मानले , सेवा हावय सार । सेवा हावय सार , भेद जी झन तँय करबे । एक सबे ला मान , सबो के दुख ला हरबे । मिलही जी भगवान , सत्य के रद्धा धरले । होबे भवले पार , करम जी अइसन करले ।। खेती खेती ला जी कर बने , सुग्घर होही धान । गोबर खातू डार ले , कहना मोरो मान । कहना मोरो मान , धान ला सुग्घर पाबे । नइ होवय नुकसान , बाद मा नइ पछताबे । बात हवय जी सार , कहत हँव येखर सेती । आगे हे विज्ञान , करव जी सुग्घर खेती ।। नारी शक्ति न